बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 5
जैन स्थापत्य कला
प्रश्न- जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिर कहाँ-कहाँ प्राप्त हुए हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चन्देल वंशी कला किस प्रकार की थी?
2. खजुराहो का नामकरण कैसे हुआ?
उत्तर -
चन्देल वंश की स्थापना नन्नुक नामक व्यक्ति ने 831 ईसवी के लगभग की थी। नन्नुक के बाद राहिल का नाम मिलता है जो प्रारम्भिक सम्राटों में थोड़ा शक्तिशाली था और एक निर्माता होने के कारण उसने अजयगढ़ का मन्दिर व महोबा के पास राहिल नगर तालाब का निर्माण करवाया था। राहिल के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी हर्ष एक शक्तिशाली शासक हुआ जिसने प्रतिहारों की दासता से मुक्ति दिलाई। खजुराहो के एक लेख में इस शासक को 'परम भट्टारक' कहा गया है। हर्ष के बाद क्रमशः यशोवर्मन्, धंग शासक बना। धंग ही वास्तव में चन्देलों की स्वाधीनता का जन्मदाता रहा है। यह शासक एक कुशल सम्राट के साथ-साथ कला एवं संस्कृति का भी उन्नायक सिद्ध हुआ। धंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी होते हुए भी खजुराहो में उसने जैन मन्दिर का निर्माण कराया था, जिसमें विश्वनाथ, पार्श्वनाथ आदि मुख्य रहे हैं जो भव्य आकार के हैं। इसी शासक ने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की थी और प्रयाग के पवित्र संगम में पवित्र मन्त्रों का जाप करते हुए जल समाधि लेकर मोक्ष को प्राप्त हुआ। धंग के बाद उसका उत्तराधिकारी शासक बना गण्ड और वह भी एक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ। गण्ड के पश्चात् उसका पुत्र विद्याधर शासक बना जो चन्देल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। यही शासक ऐसा भारतीय सम्राट था जिसने महमूद गजनवी का डटकर मुकाबला किया था जो बाद में परस्पर मित्र बन गये थे। इसी सम्राट का शासनकाल चन्देल साम्राज्य के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है। विद्याधर के पश्चात् पृथ्वीवर्मन का पुत्र मदन वर्मा चन्देल वंश का शक्तिशाली सम्राट हुआ। इसके द्वारा लगवाये गये लेखों से यह ज्ञात होता है कि बुन्देलखण्ड के चार प्रमुख स्थान – कालिंजर, खजुराहो तथा आजमगढ़ एवं महोबा में चन्देल सत्ता पुनः स्थापित हो गयी थी। जो विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् शासन सत्ता कमजोर पड़ गयी थी, वह सम्राट मदन वर्मा के द्वारा पुनः प्राप्त कर ली गयी थी। परमर्दि चन्देल वंश का अन्तिम शासक था और इसी शासक को पृथ्वीराज ने कई युद्धों में पराजित किया था। इस प्रकार तेरहवीं शती तक चन्देल राज्य का अस्तित्व बना रहा और 1305 ई० के आसपास इसे दिल्ली सल्तन्त से मिला लिया गया।
चन्देल वंशी कला - बुन्देलखण्ड के चन्देल सम्राटों का शासन काल कला के विकास के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध रहा है। बुन्देलखण्ड में बहुत-सी वास्तुकृतियाँ चन्देल सम्राट द्वारा बनवाई गयी थीं। इस युग की कला के प्रसिद्ध उदाहरण आज भी खजुराहों में विद्यमान हैं। यहाँ आज भी लगभग 30 मन्दिर विद्यमान हैं जिसमें विष्णु, शिव तथा जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ. उपासना हेतु निर्मित करायी गयी थीं। सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिरों में 'कन्दरिया महादेव' नामक मन्दिर प्रसिद्ध है। यहाँ के सबसे प्राचीन मन्दिरों में 'भुवनेश्वर का मन्दिर' है। इसके बाद खजुराहों के मन्दिरों का स्थान आता है। यहाँ के अनेक प्रमुख मन्दिरों में ब्राह्मण मन्दिरों के साथ-साथ जैन मन्दिर भी मुख्य हैं। खजुराहों में देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ-साथ अप्सराओं एवं नायिकाओं की व सामान्य स्त्री प्रतिमाएँ भी प्राप्त होती हैं जो कुछ अच्छी हैं तथा कुछ अश्लील भी बनायी गयी हैं। इस प्रकार चन्देल सम्राटों के कला प्रेम के रूप में खजुराहों का मन्दिर स्वयं अपनी कथा सुनाता प्रतीत होता है।
खजुराहो के मन्दिर - खजुराहो नामक स्थल मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है। यह प्राचीन कला में बुन्देलखण्ड का ही एक प्रमुख नगर था। यह स्थल छतरपुर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर तथा उत्तर प्रदेश के महोबा से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस नगर को चन्देल शासकों ने विशाल मन्दिरों से सुसज्जित करवाया था। यह मन्दिर आज भी विद्यमान है जिनकी संख्या अब लगभग 25-30 के आस-पास रह गयी है। इन शासकों के शासनकाल में लगभग एक किलोमीटर के क्षेत्र में इन भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ था। ये मन्दिर वैष्णव, शैव एवं जैन धर्म से सम्बन्धित रहे हैं। चन्देल शासक अधिकांशतः वैष्णव एवं शैव धर्मानुयायी थे, किन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी उनका दृष्टिकोण उदार था। यही कारण है कि खजुराहो मन्दिर मे जैन मन्दिर भी दिखाई पड़ते हैं। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर विख्यात एवं विशाल है। यहाँ पर तीनों धर्मों से सम्बन्धित मन्दिर की एक मुख्य विशेषता यह है कि इनमें से प्रत्येक धर्म का एक-एक मन्दिर अन्य मन्दिरों की अपेक्षा विशाल एवं ऊँचा है। जैसे - वैष्णव मन्दिरों में लक्ष्मण मन्दिर तथा शैव मन्दिरों में कन्दरिया महादेव मन्दिर और जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर अन्य मन्दिरों की अपेक्षा विशाल व ऊँचे हैं।
खजुराहो के वैष्णव मन्दिरों में चतुर्भुज (लक्ष्मण) मन्दिर तथा वामन मन्दिर, वराह मन्दिर एवं जवारी मन्दिर, देवी जगदम्बा का मन्दिर, पार्वती मन्दिर आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार यहाँ के शैव धर्म से सम्बन्धित मन्दिरों में विश्वनाथ, वैद्यनाथ, लाल गुआन महादेव तथा मांतगेश्वर, कुँवरमठ, इल्हादेव और कन्दरिया महादेव मुख्य हैं। जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिरों में आदिनाथ मन्दिर, पार्श्वनाथ मन्दिर, शान्तिनाथ एवं घण्टई आदि मुख्य रहे हैं।
इन तीनों धर्मों से सम्बन्धित मन्दिरों की एक मुख्य विशेषता यह है कि वैष्णव, शैव एवं जैन तीनों मन्दिर एक जैसे ही बने गए हैं। इनकी बनावट में किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है। इसलिए बाहर से यह अनुमान लगाना बहुत कठिन है कि कौन-सा मन्दिर किस धर्म से या देवी-देवता से सम्बन्धित है। सभी मन्दिरों के बाह्य भित्तियों पर सुन्दर अलंकरण तथा प्रतिमाओं का अंकन किया गया है। अन्तर केवल गर्भगृह में स्थापित देव प्रतिमा के दर्शन से ही ज्ञात होता है।
खजुराहो का नामकरण - यह स्थल मध्य प्रदेश का एक साधारण-सा ग्राम है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे 'खजुर्वाह' का नाम दिया है। इस स्थान के नामकरण के विषय में कुछ जानकार लोगों का यह भी मत है कि इस क्षेत्र में खजूर के वृक्षों की अधिकता थी, जिसके कारण इस क्षेत्र का नाम खजुसहा या खजुराहो पड़ा किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि वर्तमान में वहाँ एक भी खजूर वृक्षं विद्यमान नहीं है।
खजुराहो मन्दिर स्थापत्य - खजुराहो के मन्दिर मुख्यत: तीन धर्मों से सम्बन्धित हैं- ब्राह्मण, शैव, जैन। यहाँ के मन्दिर धार्मिक सौहार्द के जीते-जागते अनुपम प्रतीक हैं। यहाँ लगभग 30 मन्दिर अब भी उपलब्ध हैं जो अपनी मूल अवस्था में विद्यमान हैं।
खजुराहो के इन प्रसिद्ध मन्दिरों का निर्माण ग्रेनाइट एवं रक्त वर्ण के बलुआ प्रस्तरों से किया गया है। इन मन्दिरों का निर्माण प्रस्तर के ऊँचे चबूतरे पर किया गया है जिसके ऊपरी भाग को विभिन्न प्रकार के अलंकरणों से सजाया गया है। मन्दिर के चारों ओर चाहरदीवारी नहीं बनायी गयी है तथा मन्दिर का आकार भी विशाल नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में मण्डप, अर्धमण्डप एवं अन्तराल बनाया गया है। कुछ मन्दिरों में भव्य मण्डप बनाये गये हैं जिसके कारण उन्हें 'महामण्डप' कहा गया है। मन्दिरों पर आने-जाने के लिए सोपान का निर्माण किया गया है। इन मन्दिरों के प्रवेश द्वार को मकर-तोरण कहा जाता है। यह इसलिए कि प्रवेश द्वार पर मकर की मुखाकृति बनायी गयी है। मन्दिर के अर्धमण्डप का शिखर अति लघु एवं गर्भगृह का शिखर सबसे विशाल बनाया गया है। यहाँ के सभी मन्दिरों पर शिखर एक निश्चित रेखा में बनाये गये हैं जो धीरे-धीरे लघु आकार के होते गये हैं। इन शिखरों पर छोटे-छोटे शिखर भी संलग्न हैं जिन्हें उरूश्रृंग ( अंग - शिखर ) कहा जाता है। ये लघु आकार के मन्दिर के ही प्रतिरूप हैं। मन्दिर के सर्वोच्च शिखर के ऊपर आमलक, स्तूपिका एवं कलश की स्थापना की गयी है। इन मन्दिरों की भित्तियों में बनी खिड़कियों में लघु आकार की प्रतिमाएँ रखी गयी हैं। इस प्रकार मन्दिरों के सभी अंग एक-दूसरे से मिले हुए रूप में दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण यह मन्दिर एक ऐसी पर्वत की चोटी के समान दिखायी पड़ता है जिसके कई लघु आकार की पर्वत श्रेणियाँ होती हैं। खजुराहो मन्दिरों को शिखरों की बनावट के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता ह-
(1) उरूश्रृंग युक्त मन्दिर,
(2) उरूश्रृंग रहित मन्दिर।
प्रथम वर्ग के मन्दिरों में मुख्य शिखर से सटे हुए इसी के समान लघु शिखर की आकृतियाँ मुख्य शिखर के चारों ओर बनी होती हैं उन्हें ही उरूश्रृंग कहा जाता है। इन मन्दिरों मुख्य शिखर एवं लघु शिखर दोनों के शीर्ष पर आमलक बनाया जाता था जिससे शिखर की आभा में चार चाँद लग जाते थे। कभी-कभी अंग शिखरों को दोहरे आमलक से भी सजाया जाता था। इस प्रकार मन्दिर के सर्वोच्च शिखर के ऊपर आमलक स्तूपिका एवं कलश भी स्थापित किया जाता था। खजुराहो में उरूश्रृंग मन्दिर अत्यधिक संख्या में हैं जो परवर्ती चन्देल काल के रहे हैं। उरूश्रृंग युक्त मन्दिरों में चित्रगुप्त मन्दिर, देवी जगदम्बा का मन्दिर, कुँवर मठ एवं लक्ष्मण मंन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर, जावरी व कन्दरिया महादेव और पार्श्वनाथ मन्दिरों के नाम मुख्य रूप से लिये जा सकते हैं।
द्वितीय वर्ग के वे मन्दिर हैं जिनमें मुख्य शिखर के चारों ओर लघु आकार के शिखर की रचना नहीं की गयी है। ऐसे मन्दिर प्रारम्भिक अवस्था के सूचक माने गये हैं। उरूश्रृंग रहित मन्दिरों में वामन मन्दिर एवं आदिनाथ का मन्दिर मुख्य रूप से हैं। किन्तु इन मन्दिरों को चैत्य गवाक्षों से अलंकृत किया गया है।
प्रदक्षिणापथ के आधार पर भी खजुराहो के मन्दिरों को दो समूहों में विभाजित किया गया है-
( 1 ) निरन्धार मन्दिर,
(2) सान्धार मन्दिर।
प्रथम समूह के मन्दिरों में वे मन्दिर आते हैं जिनके गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणापथ नहीं बनाया गया है। ऐसे मन्दिर निरन्धार- मन्दिर कहलाते हैं। खजुराहो के प्रारम्भिक अवस्था के मन्दिर में सम्भवतः प्रदक्षिणापथ के निर्माण की परम्परा न होने के कारण वे मन्दिर दक्षिणापथ रहित हैं। वे इसी समूह के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे मन्दिरों में देवी जगदम्बा कुँवर मठ मन्दिर मुख्य हैं जिनमें चारों ओर प्रदक्षिणापथ नहीं बनाया गया है।
द्वितीय समूह के मन्दिरों में वे मन्दिर आते हैं जिनके गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणापथ का निर्माण किया गया है, वे मन्दिर ही सान्धार मन्दिर कहलाते हैं। ऐसे मन्दिर निरन्धार मन्दिरों की अपेक्षा विशाल एवं विस्तृत तथा भव्य और अलंकृत होते हैं। विश्वनाथ एवं चतुर्भुज मन्दिर और कन्दरिया महादेव मन्दिर इसी समूह के अन्तर्गत आते हैं। विश्वनाथ व चतुर्भुज मन्दिर दोनों एक जैसे बने हुए हैं। इन मन्दिरों के प्रत्येक कोने पर लघु आकार के मन्दिर निर्मित हैं जिसके कारण इस मन्दिर को 'पंचायतन' भी कहा जाता है।
खजुराहो के प्रमुख मन्दिरों का वर्णन - मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में नागर शैली के मन्दिर प्राप्त होते हैं। इस शैली के सबसे उत्कृष्ट मन्दिरों में छतरपुर जिले के खजुराहो मन्दिर का स्थान पहले आता है। इन सुन्दर एवं भव्य मन्दिरों का निर्माण चन्देल शासकों ने नवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक करवाया था। ये मन्दिर मध्ययुगीन वास्तु एवं तक्षण कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। खजुराहो में वर्तमान में लगभग 30 मन्दिर विद्यमान हैं। उनमें से प्रमुख मन्दिर इस प्रकार हैं-
वामन मन्दिर – वामन मन्दिर वैष्णव मन्दिर है और प्रारम्भिक अवस्था का सूचक है। यह मन्दिर सप्तरथ योजना पर निर्मित है जिसकी लम्बाई को पाँच भागों में दो बन्धनों के द्वारा विभाजित किया गया है। इस मन्दिर में उरूश्रृंग का अभाव है लेकिन उरूश्रृंग के स्थान पर चैत्य गवाक्ष का निर्माण किया गया है। मन्दिर के तल विन्यास में गर्भगृह अन्तराल, अर्धमण्डप एवं मण्डप की रचना की गयी है। मन्दिर के गर्भगृह में वामन की प्रतिमा स्थापित की गयी है।
चतुर्भुज मन्दिर - यह मन्दिर वैष्णव मन्दिरों में महत्वपूर्ण है जो सान्धार होते हुए भी पंचरथ एवं पंचांग है। इस मन्दिर के प्रत्येक कोने पर लघु आकार के एक-एक पूरक मन्दिर का निर्माण किया गया है जिसके कारण ही इस मन्दिर को पंचायतन मन्दिर भी कहते हैं। इस मन्दिर का गर्भगृह प्रदक्षिणापथ से आवृत्त है जिसमें प्रकाश और वायु के लिए तीन दिशाओं में वातायन बनाया गया है। गर्भगृह के प्रदक्षिणापथ से आवृत्त होने के कारण ही इस मन्दिर को सान्धार प्रासाद कहा गया है। इस मन्दिर के गर्भगृह में विष्णु भगवान की खड़ी प्रतिमा स्थापित की गयी है जिसमें विष्णु को चतुर्भुजाओं वाले तथा तीन सिर बनाये गये हैं। इन तीनों सिरों में मध्य वाला सिर विष्णु का व इधर-उधर के दो सिर में एक नृसिंह व दूसरा वराह अवतार के हैं। इस मन्दिर के मण्डप का निर्माण उड़ीसा मन्दिर के जगमोहन की भाँति घटते हुए क्रम में किया गया है। इस मन्दिर की लम्बाई 29.46 मीटर व चौड़ाई 13.61 मीटर के लगभग है। इस मन्दिर को लक्ष्मण मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है।
जगदम्बा व कुँवर मठ मन्दिर - इन मन्दिरों का निर्माण अत्यन्त साधारण ढंग का है जो प्रारम्भिक अवस्था के बने हुए जान पड़ते है। इन मन्दिरों में प्रदक्षिणापथ का निर्माण न होने के कारण ये मन्दिर निरन्धार शैली के अन्तर्गत आते हैं। जगदम्बा मन्दिर भी वैष्णव धर्म से सम्बन्धित है जिसमें प्रदक्षिणापथ का अभाव होते हुए भी उच्च अधिष्ठान के कारण मन्दिर के आकर्षण में कोई कमी नहीं आने पायी है। कुँवर मठ मन्दिर शैव धर्म से सम्बन्धित मन्दिर है।
आदिनाथ मन्दिर - यह मन्दिर जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिर है। इस मन्दिर को खजुराहो के पूर्ण विकसित तथा परिपथ मन्दिर के ठीक पहले का प्रतिनिधि माना गया है। इस मन्दिर का आकार अत्यन्त लघु है किन्तु यह आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर में भी अंग शिखरों के स्थान पर चैत्य झरोखे का निर्माण किया गया है।
पार्श्वनाथ मन्दिर – जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ मन्दिर सबसे प्रसिद्ध है। यह मन्दिर 62 फुट लम्बा व 31 फुट चौड़े आकार में निर्मित किया गया है। इस मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर जैन मूर्तियों की तीन भद्रिका को उकेरा गया है जो अत्यन्त अलंकृत व आकर्षक हैं। इस मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणापथ का निर्माण किया गया है। यह मन्दिर जैन मन्दिरों में अति पवित्र व सौन्दर्ययुक्त मन्दिर है।
कन्दरिया महादेव मन्दिर - खजुराहो के मन्दिरों में कन्दरिया महादेव मन्दिर सबसे विशाल व सर्वश्रेष्ठ है जो 109 फुट लम्बा, 60 फुट चौड़ा तथा 116 फुट ऊँचा है। यह मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है और मन्दिर के चबूतरे पर चढ़ने के लिए चौड़े सोपान बनाये गये हैं। इस मन्दिर का वास्तु विन्यास बड़ा ही अनोखा है तथा मन्दिर के क्षैतिज तल विन्यास के छः मुख्य भाग हैं-
(1) अर्धमण्डप,
( 2 ) मण्डप,
(3) महामण्डप,
(4) अन्तराल,
(5) गर्भगृह,
(6) प्रदक्षिणापथ |
इस मन्दिर का अर्धमण्डप सबसे कम ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। इसके बाद ही मण्डप, महामण्डप एवं अन्तराल ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है। मन्दिर का गर्भगृह सबसे ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है। इस मन्दिर का गर्भगृह सप्तरथ है तथा इसके बाढ़ को सात भागों में विभाजित किया गया है। गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणापथ निर्मित किया गया है जिसमें वायु व प्रकाश के लिए वातायन की भी व्यवस्था की गयी है। यह मन्दिर मध्य भारत की मन्दिर निर्माण की विशिष्ट परम्परा का चरम बिन्दु माना जा सकता है। यह एक सान्धार मन्दिर है जिसके उरूश्रृंगों की छटा दर्शनीय है। इस मन्दिर का शिखर विशाल है और इसके सौन्दर्य में पूर्ण आकर्षण दिखायी पड़ता है। इस मन्दिर के अंग शिखरों एवं प्रमुख शिखरों में एकसारता दिखाई पड़ती है जिसे देखने से वह कर्णप्रिय गीत के आरोह के समान लगता है। इन अंग शिखरों के कारण ही इस मन्दिर की शोभा द्विगुणित हो गयी है। सभी अंग शिखर धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए इस तरह से मुख्य शिखर में खो गये हैं जैसे मुख्य शिखर में वे अपना अस्तित्व बनाकर और भी अधिक ऊँचाई को छूने के लिए आकाश की ओर अग्रसर हों। इन शिखरों के ऊपर विशाल आमलक एवं कलश बनाया गया है जो शिखर के अनुरूप ही बनाये गये हैं और शिखर के सौन्दर्य में अभिवृद्धि कर रहे हैं।
इस मन्दिर के अन्तराल, मण्डप व अर्धमण्डप पर भी अलग-अलग कोणिक शिखर बनाया गया है जिसके ऊपर आमलक एवं कलश मुख्य शिखर के लघु रूप को दर्शाते से लगते हैं। मन्दिर के सभी अंग के शिखर अन्ततः मुख्य शिखर में विलीन होकर मुख्य शिखर के सौन्दर्य में अपना पूर्ण सहयोग देते हैं।
कन्दरिया महादेव मन्दिर के गर्भगृह में संगमरमर के पवित्र शिवलिंग की स्थापना की गयी है। यह मन्दिर पूर्णरूपेण भगवान महादेव को समर्पित किया गया है। इस मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर सुन्दर देव प्रतिमाओं एवं आलंकारिक मूर्तियों का अंकन किया गया है। एक सामान्य गणना के अनुसार यहाँ लगभग नौ सौ तक मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। कनिंघम महोदय की गणना के अनुसार, इस मन्दिर में केवल दो एवं तीन फुट की ऊँचाई वाली मूर्तियों की संख्या 872 के आसपास है। इन मूर्तियों में संगीतज्ञ, अप्सराओं, विद्याधर एवं मकर तथा मिथुन मूर्तियों का अंकन किया गया है। मिथुन मूर्तियाँ कामास्क्त दिखाई गयी हैं तथा मिथुन मूर्तियाँ आदमकद से थोड़ी ही कम ऊँची बनी हैं। सभी प्रतिमाएँ सजीव एवं आकर्षक दिखायी पड़ती है।
कन्दरिया महादेव का यह मन्दिर वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मन्दिर के विभिन्न अंगों में साम्य व सन्तुलन दिखाई पड़ता है। इस मन्दिर में वास्तु के साथ-साथ मूर्तिकला दोनों का अद्भुत तालमेल देखने को मिलता है। इस प्रकार समग्र रूप से खजुराहो की वास्तु तथा मूर्ति दोनों ही कलाएँ अति सुन्दर व आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं जिसके कारण प्रत्येक दर्शक इन मन्दिरों की सुन्दर कलाकारी तथा उत्कीर्णन की ओर खिंचा चला जाता है।
मन्दिरों का निर्माण काल - खजुराहों के मन्दिरों का निर्माण काल एक विवादास्पद विषय है, क्योंकि इसके निर्माण के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। खजुराहो के मन्दिरों की भित्तियों से चन्देल वंश के दो शासकों धंग तथा यशोवर्मा के लेख प्राप्त होते हैं। लेकिन इनमें भी मन्दिर निर्माण का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। सामान्यतः इन मन्दिरों को सम्राट धंग तथा विद्याधर के समय का निर्मित किया गया माना जाता है। पर्सी ब्राउन महोदय का अनुमान है कि, "चन्देल शासकों ने इस मन्दिर को केवल आश्रय प्रदान किया था और वास्तुकार ने पूर्व में प्रचलित वास्तु शैली को ही परम्परा के अनुसार चरम पर पहुँचा दिया था।"
खजुराहो के विश्वविख्यात मन्दिरों के निर्माण में चन्देल शासक यशोवर्मा (930- 950 ई०) का प्रमुख योगदान रहा है। इसी सम्राट ने खजुराहो के प्रसिद्ध विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया था। इसी मन्दिर में सम्राट ने बैकुण्ठ की प्रतिमा स्थापित करायी थी जिसे उसने प्रतिहार सम्राट देवपाल से प्राप्त किया था। सम्राट यशोवर्मा ने जिस मन्दिर में बैकुण्ठ की प्रतिमा स्थापित करायी थी उस मन्दिर का स्वर्ण-शिखर आकाश को प्रकाशित करते थे। कनिंघम महोदय ने इस मन्दिर की पहचान खजुराहो स्थित चतुर्भुज नाम से प्रसिद्ध मन्दिर से की है। इस अनोखे मन्दिर का निर्माण सम्राट यशोवर्मन के शासनकाल में हुआ था किन्तु मन्दिर का पूर्ण निर्माण यशोवर्मन का यशस्वी उत्तराधिकारी पुत्र धंग ने अपने शासनकाल में पूरा करवाया था। इस कथन की पुष्टि धंग के खजुराहो लेख (वि० सं० 1011 ) से ज्ञात होता है।
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